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Wednesday, October 26, 2016

हमको तो दीवाली की सफाई मार गई ---

किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ रक्षा की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको तो दीवाली की सफाई मार गई !
हमको तो दीवाली की सफाई मार गई ! -----

तीन तीन नौकरों की मेहनत लगी थी ,
साथ में मशीनों की मशक्कत लगी थी ।
वक्त की पाबन्दी की दिक्कत सच्ची थी ,
नौकरों को भी भागने की जल्दी मची थी।
नौकरों को भी भागने की जल्दी मची थी। ----

नकली फूलों से धूल की धुलाई मार गई,
कई फालतू सामान की फेंकाई मार गई।
खाली खड़े खड़े टांगों की थकाई मार गई,
ऐसे में अपनी कामवाली बाई भाग गई।
ऐसे में अपनी कामवाली बाई भाग गई।----

वैसे तो हम मोदी जी के भक्त बड़े थे ,
स्वच्छता अभियान के भी पीछे पड़े थे।
पॉलिटिक्स में 'आप' के ना साथ कड़े थे,
लेकिन लेकर हाथ में हम झाडू खड़े थे।
लेकिन लेकर हाथ में हम झाडू खड़े थे।----

डर के करते लाइट्स की सफाई मार गई,
गमलों में सूखे पौधों की छंटाई मार गई।
घर भर के साफ पर्दों की धुलाई मार गई ,
अफसर को बनाके नौकर लुगाई मार गई।
अफसर को बनाके नौकर लुगाई मार गई।

किताबों पे देखा कि काफी धूल चढ़ी थी,
मिली वो चीज़ें जो अर्से से खोई पड़ी थी।
क्या रखें क्या फेंकें ये मुसीबत बड़ी थी ,
उस पर डंडा लेकर बीवी सर पर खड़ी थी।
उस पर डंडा लेकर बीवी सर पर खड़ी थी।

अपने लिखे नोट्स की लिखाई मार गई,
वो लव एन्ड बेल्ली की बिकाई मार गई।
अपनी ग्रेज एनेटॉमी से जुदाई मार गई ,
फिर कबाड़ी की तराज़ू की तुलाई मार गई।

बाजारों में नारियों की भीड़ बड़ी थी।
दुकानें भी सामानों से भरी पड़ी थी।
चीनी बहिष्कार की ये शुभ घड़ी थी।
मेड इन इंडिया चेपियों की लगी झड़ी थी।  

वाट्सएप के लेखों की लंबाई मार गई,
आभासी संदेशों की बधाई मार गई ।
दोस्तों के फोन्स की जुदाई मार गई ,
जूए में हारे लाखों की हराई मार गई।

दफ्तर में हम जब बड़े अफ़सर होते थे ,
दीवाली पर कमाई के अवसर होते थे ।
जाने अनजाने लोग गिफ्ट्स लाते थे ,
खुद बॉस और मंत्री जी के घर जाते थे ।

अब बिछड़े गिफ्ट्स की कमाई मार गई ,
दफ्तर में होते जश्न की जुदाई मार गई।  
लोगों से बिछड़े ग़म की तन्हाई मार गई ,
रिटायर होकर दफ्तर से विदाई मार गई।

किसी को तो धर्म की लड़ाई मार गई ,
किसी को गौ रक्षा की दुहाई मार गई।
किसी को प्याज की महंगाई मार गई ,
हमको बस दीवाली की सफाई मार गई !
हमको बस दीवाली की सफाई मार गई ! -----







Saturday, October 1, 2016

विश्व बुजुर्ग दिवस पर एक पेशकश ---


यह आधुनिक और विकसित जीवन की ही देन है जो बच्चे स्कूल की शिक्षा ख़त्म होते ही घर छोड़ने पर मज़बूर हो जाते हैं , और फिर कभी घर नहीं लौट पाते।
अक्सर सुशिक्षित समाज में मात पिता बुढ़ापे में अकेले ही रह जाते हैं। आज विश्व बुजुर्ग दिवस पर एक रचना , पिता का पत्र पुत्र के नाम :


जीवन के चमन मुर्झा जायें , और हर अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर ,  कहीं रहो, पर आ जाना ----

दुनिया का दस्तूर है ये , आखिर घर छोड़ा जाता है ,
पर बिना बच्चों के भी ,  आँगन सूना हो जाता है ।
तुम घर का अहसास दिलाने , इक दिन सूरत दिखला जाना ----

मात पिता का सारा जीवन , पालन में निकल जाता है ,
सपने पूरे होने तक यौवन , हाथों से फिसल जाता है ।
तुम यौवन का संचार कराने , शक्ति बन कर आ जाना -------

जाने कितने व्रत रखे थे  , जाने कितनी मन्नत मांगी थी ,
तेरी खातिर तेरी माता भी , जाने कितनी रातें जागी थी ।
जीवन के अंतिम क्षण पर , तुम अपना फ़र्ज़ निभा जाना ------

जीवन के चमन मुर्झा जायें , और अंग शिथिल पड़ जायें ।
तुम मुझे सँभालने काम छोड़कर ,  कहीं रहो घर आ जाना ----


( जब आँचल रात का लहराये -- इस ग़ज़ल / गीत पर आधारित )