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Thursday, February 10, 2011

नियति

आज प्रस्तुत है एक लघु कथा

घंटी बजते ही सेठ जी ने दरवाज़ा खोला और सामने काम वाली बाई को देख कर बिगड़ पड़े ।
--कहने के बावजूद कर दी न देर ।
कामवाली कुछ बोली नहीं और सर झुका कर मुस्कराती हुई रसोई में चली गई ।
रसोई में सेठानी ने भी डांटा --कमला तुम्हे कहा था न कि कल टाईम पर आ जाना , फिर देर कर दी ।
कमला -- बीबी जी , का करते , आज हमरी लड़ाई है गई ।
सेठानी --किसके साथ ?
कमला --हमरे मर्द के साथ । ऊ हमरे इक रिश्तेदार की लौंडिया की सादी भई । वे हमरी लौंडिया की सादी में लोहे की अलमारी दियें रहीं । सो हमका भी अलमारी देनी थी । हमरा मर्द एक दूसरे रिश्तेदार के पास पहुँच गया , पैसन मांगने के वास्ते । ऊ मना कर दियें ।
हमने कहा --तुम कुछ काम धंधा तो करत नाहिकौन तुम्हे रुपया पैसा देइं
बस उनका गया गुस्साचाय का कप वो फैंका और ज़मा दिए हमका दो झापड़

इतना कह कामवाली शांत भाव से अपने बर्तन मांजने के काम में लीन हो गई ।

नोट : हमारे समाज में जाने कितनी ही ऐसी कमला बाई हैं जो सुबह शाम बर्तन मांजकर अपने निकम्मे पति और बच्चों का पेट पालती हैंफिर भी पति की झाड और झापड़ खाती हैंक्या यही इनकी नियति है ?

52 comments:

  1. सच कहा आपने डाक्टर साहब. इस सामाजिक व्यवस्था में स्त्री को हर हाल में समझौता करना ही है. अच्छा विषय लिया आपने.

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  2. कहते हैं कि रोने से न बदलेंगे नसीब ...

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  3. प्रेरक लघु कथा , डा० सहाब, हमारे समाज जा एक अन्य सच !

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  4. कमला के दर्द को बयां करने के लिये हार्दिक साधुवाद..........

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  5. किस्मत वाली थी कमला जो लोहे की आलमारी के लिये झापड पडा वर्ना कई काम वालियों को तो दिन भर खटने के बाद बच्चों की रोटी से पहले आदमी के दारु जैसे मुद्दों पर अक्सर ही पीटना पडता है ।

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  6. खाते पीते घरों में भी स्त्रियों की दुर्दशा है , और काम वाली बाई भी एक स्त्री है । ये स्त्रियों की ही नियति है । समय बदल रहा है , लेकिन बहुत धीरे-धीरे । हमारी आने वाली कई पीढियां इस अभिशाप कों झेलेंगी अभी ।

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  7. काम वाली बाई ही नहीं , कई खाते- पीते घरों की स्त्रियों की भी यही नियति है ...दिव्या जी से सहमत हूँ !

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  8. सत्य वचन!
    भारत परम्पराओं का देश रहा है जहाँ हर कोई वो कर रहा है जो उसके बाप दादा ने किया...
    एक बाप ने बेटे को उसकी रिपोर्ट देख झांपड़ दिया तो बेटे ने पूछा यदि उनके पिताजी भी उनको मारते थे?
    उत्तर हाँ में होने से उसने फिर पूछा यदि दादाजी को भी उनके पिताजी मारते थे?
    उत्तर फिर हाँ में सुन उसने कहा यानि यह गुंडागर्दी खानदानी है!

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  9. अशिक्षा और गुलामी के भावों की जकड़न ऐसी परिस्थितिउओन के लिए उत्तरदायी हैं.

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  10. औरतों ने ही समाज को संभाला हुआ है ! तमाम दुखो के सहने का बावजूद भी उफ़ तक नहीं करती और अगर कभी जब वो आवाज़ उठाती हैं तो यही समाज उन्हें दोषी करार देता है !
    यह बहुत बड़ी विडम्बना है !

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  11. wakai ye ek kamala bai ki hi nahi ..kai padhi likhi aur noukripesha nariyo ki bhi kahani hai...

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  12. कुछ हद तक इसे नियति मानती है मगर अब बदलाव वहाँ भी आने लगा है मगर इतना कम कि ना के बराबर्………………और ऐसा हर तबके मे हो रहा है कही पता चल जाता है और कहीं नहीं।

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  13. डॉ. साहेब काम वालियों की यही नियति हे --हमारी काम वाली अपने घर के साथ ही रोज पति की दारु की व्यव्स्था भी करतीहे --बच्चे भी उसे ही पलना हे --क्या करे कहती हे की माँ भी यही करती थी ?

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  14. बहुत सही कह रहे हैं आप ... ऐसी पति पीड़ित गरीब महिलाओं की नियति ही कही जा सकती है ... आभार

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  15. यह स्थिति तो कामवालियों की ही क्या ..हर तबके में है और काफी संख्या में है ..काफी कुछ बदल रहा है पर बहुत कुछ बदलना बाकी है अभी.

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  16. कामवाली बाइयां भी इसे अपना नसीब मान चुप बैठ जाती हैं....जब वे खुद कमाती हैं, क्यूँ निकम्मे पति को ढोती हैं...बेहद अफसोसजनक

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  17. आप कम वाली बाई की बात कर रहे है करोडपति नेता बाप के बिगडैल बेटे ने एक नहीं अपनी दो दो पत्नियों के साथ क्या किया सब ने देखा एक उससे अलग हो गई दूसरी उसके बाद भी साथ है जबकि उस वर्ग में पति पत्नी का अलग हो जाना आम बात है फिर भी अब इसे क्या कहे | किन्तु काम वाली बाई जानती है की पति कोई काम करे या ना करे जिस सामाजिक परिवेश में वो रह रही है वहा पति का होना ही उसे और उसकी बेटियों को कई तरह से सुरक्षा प्रदान करता है | उसके साथ रहना उसकी मज़बूरी ही है |

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  18. शायद उनको पता है रोने धोने से कुछ बदलने वाला नही है ...जबकि शिक्षित परिवार में इस तरह की बात पर बवाल मच जाता है ...!ये गरीब लोग अपनी छोटी सी दुनिया में संतुष्ट तो है ...चाहे मजबूरी में ही सही ..

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  19. सामाजिक विद्रूपताओं का सूक्ष्‍म चित्रण।

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    ब्‍लॉगवाणी: एक नई शुरूआत।

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  20. कहानी अच्छी है। यह नियति है तो इसे बनाया किसने है कभी किसी को अपने उपर हावी नही होने देना चाहिए चाहे वह कोई भी रिशता क्यों न हो। कोई भी वर्ग क्यों न हो।

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  21. मुझे तो काम वाली बाईयों के लिये ही नही बल्कि जहां भी औरत जरा सा कमजोर पडी (फ़िर उस परिवार की आर्थिक हैसियत चाहे करोडपति की ही क्यूं ना हो) उसकी यही हालत है. ऊपर ऊपर कुछ हालत सुधरती दिखाई देती है पर शायद मंजिल कोसों दूर है.

    रामराम.

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  22. यह देश का दुर्भाग्य है कि इक्कीसवीं सदी में भी देश की महिलाओं का यह हाल है । देश की ७१ % आबादी गाँव में और करीब एक तिहाई लोग गरीबी रेखा से नीचे रहने के कारण, अभी भी महिलाओं का शोषण जारी है । बेशक शिक्षा और उन्नत्ति के साथ हालात कुछ सुधरे हैं । अब शहरों में महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति जागरुक हैं । शिक्षित होकर स्वावलंबी हैं । लेकिन अभी भी करोड़ों कमला बाईयां हैं जो अशिक्षित और मजबूर हैं अपने अधर्मी , शराबी पति को परमेश्वर समझने के लिए । इसके लिए कहीं न कहीं हमारा समाज भी जिम्मेदार है जो एक अकेली महिला को कमज़ोर समझ कर उसे असुरक्षा के घेरे में रहने पर मजबूर करता है ।

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  23. उन पुरुषों पर कोई लिखने को तैयार नहीं जिनका जीवन स्त्रियों के कारण नर्क बना हुआ है।

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  24. सभी ऎसे नही होते, हमारे घर मे जो काम करने आती हे उस का मर्द भी काम करता हे, ओर बच्चे अब उच्च शिक्षा ले रहे हे, असल मे सिर्फ़ नारी ही दुखी नही मर्द भी अगर किसी नारी के हाथ चढ जाये तो... इस लिये हमे एक दम से मर्दो को ही नही कोसना चाहिये, अगर आप सब अपने आसपास देखे ओर ईमान्दारी से बताये तो मर्द ज्यादा दुखी नजर आयेगे, लेकिन यह बोलते नही, एक बहुत बडा उदाहरण मेरे पास हे

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  25. प्रिय डॉ.टी.एस.दराल साहब
    सादर सस्नेहाभिवादन !

    जो अपना दुःख व्यक्त नहीं कर सकते उनकी व्यथा को स्वर देने के लिए निस्संदेह आप साधुवाद के पात्र हैं ।
    और, अच्छी लघुकथा के लिए भी धन्यवाद ! … किया हुआ वादा निभा रहे हैं … :)

    लेकिन … जिनके साथ अग्नि की साक्षी में फेरे लिए हैं , उनके साथ सब कुछ सह कर भी ऐसी औरतें , अच्छी ख़ासी वैल एज़्यूकेटेड औरतों
    की तुलना में बहुत गंभीरता और समर्पण भाव से निर्वाह करके उम्र गुज़ारती पाई जाती हैं … यह कड़वा सच बहुतों को सहन नहीं होगा ।

    कई मित्रों को मेरी यह बात लंबी लंबी पोस्ट्स लिखने को प्रेरित कर सकती है …

    औरत पर पुरुष ज़ुल्म करे तो उससे न निभाइए , उसे छोड़ दीजिए … अच्छा संदेश है !
    … लेकिन आम आदमी , जो व्यवस्था, न्याय , समाज , लॉबियों के अन्याय , दुर्व्यवहार और ज़ुल्म का शिकार लगातार हो रहा है … वह कहां जाए ?
    किसे छोड़े ?

    कम से कम परिवार के संदर्भ में पलायन या विखण्डन के लिए उकसाने की तथाकथित चेतना , जाग्रति या क्रांति मुझे तो हज़म नहीं होती ।
    इन रास्तों पर बढ़ चुकी मां बहन बेटियों की ज़िंदगी में झांकें तो रोंगटे खड़े हो सकते हैं , … उन्होंने तथाकथित नारी जाग्रति के नाम पर जो कुछ पाया , यह जान कर ।

    …और,प्रश्न स्त्री पर पुरुष के ज़ुल्म का नहीं , ज़ुल्म का शिकार पुरुष भी तो हो रहा है ।
    परिवार में नहीं तो अन्यत्र अवश्य हो रहा है , कई जगह परिवार में भी …
    पत्नी पीड़ित / ससुराल पीड़ित पुरुष संबंधी कुछ ख़बरें पिछले कुछ वर्षों में टीवी चैनलों पर देखने में आईं हैं …:)

    मूल बात है पलायन या विखंडन कोई रास्ता नहीं ।


    बसंत पंचमी सहित बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएं !
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  26. सच कहा आपनें,हालात यही हैं.

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  27. हा हा हा ! राजेन्द्र जी , बहुत जल्दी समझ जाते हो भाई ।

    लेकिन भाई आम आदमी यदि कई ज़ुल्मों का शिकार हो रहा है तो क्या इसका प्रतिशोध पत्नी से लेगा ? बेशक संयुक्त परिवार का अपना फायदा है । लेकिन आजकल पलायन की वज़ह समय के साथ बदलते हालात हैं । विखंडन के लिए ज़रूर कभी कभी पत्नियाँ जिम्मेदार होती हैं । लेकिन वह खाए पिए अघाए परिवारों में ज्यादा होता है ।

    राधारमण जी , भाटिया जी , पत्नी पीड़ितों पर एक हास्य कविता चलेगी ?

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  28. शिक्षाप्रद और प्रेरक लघुकथा!

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  29. कोई भी व्यवस्था जो सदियों से चली आ रही हो तो उसका कोई इतिहास होता है (और पृथ्वी पर जीवन तो कहानी है युगों युगों की!)...यदि हम भारत के मानव समाज की ओर दृष्टिपात करें तो वर्तमान में सब क्षेत्र में पलायन और तथाकथित विखंडन ही पायेंगे,,,दूसरी ओर वैज्ञानिक (खगोलशास्त्री) हमें बतातें है कि बिग बैंग के बाद ब्रह्माण्ड एक गुब्बारे के समान बढ़ता ही चला जा रहा है, एक पिंड से दूसरे पिंड कि भी दूरी भी बढती जा रही है, और ज्ञानी 'हिन्दू योगी' कह गए "यथा पिंडे तथ ब्रह्मांडे" - मानव ब्रह्माण्ड का ही प्रतिरूप है,,,और काल चक्र सतयुग से कलियुग कि ओर ही बढ़ता दीखता है यद्यपि 'सागर मंथन' विष (कलियुग) से आरम्भ हो चार चरणों में अमृत प्राप्ति तक चला (सतयुग के अंत तक, जब सर्वगुण सम्पन्नता संभव हुई होगी)...

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  30. ..बहुत दुखद स्थति है कुछ आदमी तो सुबह-शाम अपना गला तर कर दिन भर यही गाली गलोच और मारपीट में अपना समय निकलते हैं.. अब क्या कहें .... सब पर सबका बस भी तो नहीं चलता .... कमोवेश यह स्थिति सिर्फ काम वाली बाई के यहाँ ही नहीं अपितु अच्छे पढ़े लिखे कहलाये जाने वाले घरों में देखकर बहुत दुःख होता है, समझाने की कोशिश में कुछ तो कुछ दिन सही रहते हैं लेकिन फिर वही अपनी पुराने चाल पर आ जाते है ..
    ..जाने कब निजात मिलेगी नारी को..... समय सदा एक सा नहीं रहता है बस इसी से उम्मीद है की एक न एक दिन यह तस्वीर बदलेगी जरुर ...

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  31. सब चक्कर प्रकृति में विभिन्नता और पैसों, (चंचलं लक्ष्मी?) का है जो टाटा, बिरला, अम्बानी आदि के पास तो बहुतायत में है (जबकि वो भी शुन्य से ही अनंत तक पहुंचे,,, नादबिन्दू समान?)! और 'कमला जैसों' के पास केवल इतना भी नहीं कि वो अगले दिन की भी सोच सकें, कहावत है, "कहाँ राजा भोज/ और कहाँ गंगुआ तेली"...किन्तु यह भी कि 'घूरे के भी दिन फिरते हैं'...और शायद दोष तुलसीदास जी का है जो कह गए "ढोल, गंवार, क्षुद्र, पशु, नारी ये सब ताडन के अधिकारी", और उनका भी जो तुलसीदास जी को ही भगवान मान बैठे, और उनके शब्दों का सार न समझ सके, यानि जैसा गीता में कहा गया कि सब गलतियों का कारण अज्ञान है...

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  32. काल और स्थान दोनों का हाथ हो सकता है इस में,,,जब में असम में था (अस्सी के दशक में कुछ वर्ष) तो सुना कैसे कामरूप जिले में पहले तंत्र विद्या बहुत उन्नति कर चुकी थी,,, जब स्त्रियाँ पुरुषों को अपने चंगुल में करने की कला सीख गयीं थीं,,,जहाँ तक शारीरिक अथवा अध्यात्मिक शक्ति का प्रश्न है, एक अकेली धोबन काफी थी पूरी मुग़ल सेना को ब्रह्मपुत्र नदी पार आसाम न आने देने के लिए - पूरे ६०० वर्ष राज्य किया अहोम राजाओं ने,,,किन्तु हर व्यवस्था का अंत निश्चित होने के कारण, गुरु तेग बहादुर के कारण औरंगजेब की सिख सेना धोबन को हरा नौगाँव तक आसानी से पहुँच गयी जहां आज भी एक बड़ा गुरुद्वारा है (और वहां के सिख भी असमिया भाषा बोलते हैं! जिस कारण पंजाब से गए सिख निराश होते हैं!)...

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  33. "बात से बात निकलती है" और "Travelling is education"...'कमला' से याद आया कि जब में रेल से परिवार समेत गौहाटी पहली बार जा रहा था तो (मीटर गेज वाली रेल में, जो अब समाप्त हो गयी ब्रॉड गेज होने के बाद, क्यूंकि 'प्रकृति परिवर्तनशील है'! और "मुर्गी क्या जाने अंडे का क्या होगा?...") एक दिल्ली के व्यापारी भी मिले जो वर्ष के अंत में वहाँ जाते थे,,, वहाँ के व्यापारियों से पैसे वसूल करने,,,उन्होंने बताया कि असम में संतरे को 'कमला' कहते हैं, और क्यूंकि वो हर दिन का खर्च डायरी में लिखते थे तो "कमला - २ रुपये" प्रतिदिन उनकी पत्नी को उनके दिल्ली लौट पढने को मिला तो वो प्रश्न कर बैठी "यह कमला कौन है जिसे आप २ रु रोज देते थे?"

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  34. डॉ. दिव्या श्रीवास्तव ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर किया पौधारोपण
    डॉ. दिव्या श्रीवास्तव जी ने विवाह की वर्षगाँठ के अवसर पर तुलसी एवं गुलाब का रोपण किया है। उनका यह महत्त्वपूर्ण योगदान उनके प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता, जागरूकता एवं समर्पण को दर्शाता है। वे एक सक्रिय ब्लॉग लेखिका, एक डॉक्टर, के साथ- साथ प्रकृति-संरक्षण के पुनीत कार्य के प्रति भी समर्पित हैं।
    “वृक्षारोपण : एक कदम प्रकृति की ओर” एवं पूरे ब्लॉग परिवार की ओर से दिव्या जी एवं समीर जीको स्वाभिमान, सुख, शान्ति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के पञ्चामृत से पूरित मधुर एवं प्रेममय वैवाहिक जीवन के लिये हार्दिक शुभकामनायें।

    आप भी इस पावन कार्य में अपना सहयोग दें।
    http://vriksharopan.blogspot.com/2011/02/blog-post.html

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  35. यह अर्थ दंश है। मारने वाला भी कम दुःखी नहीं है। आपने सही शब्द का प्रयोग किया...नियति।

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  36. सही कहा कविता जी । कभी कभी पढ़े लिखे भी हैवान बन जाते हैं ।

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  37. नारी तेरी हाय! यही कहानी....:(

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  38. सच है नारी की किस्मत शायद कभी नही बदल सकती। अभी भी नारी की स्थिती दयनीय शोकनीय है । अच्छी लघु कथा के लिये धन्यवाद।

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  39. मायावती के जूते साफ़ करने वाले 'पुरुष' अफसर के बारे में क्या कहियेगा? शक्ति का खेल है? ("जिसकी लाठी उसकी भैंस"!)

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  40. दरल साहेब,
    स्त्रियों को बेहतर पता है कि बिना पति के जीवन कितना असहनीय होता है। इसलिए निकम्मा है तो क्या हुआ पति की छत्रछाया तो है। बिना पति के ये समाज तो स्त्रियों की और भी दुर्दशा कर देता है। शायद यही ख्याल उन्हें जीने का हौसला देता होगा। फिर भी स्त्रियों पर यह सरासर अत्याचार है। इसमें सुधार होना चाहिए और पुरुषों को स्त्रियों के साथ जीवनसाथी समझ के व्यवहार करना चाहिए। रचना समस्या प्रधान एवं सराहनीय है।

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  41. बस उनका आ गया गुस्सा । चाय का कप वो फैंका और ज़मा दिए हमका दो झापड़ ।

    और इस तरह मनता है गरीबों का वेलेंटाइन डे......

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  42. जब तक अशिक्षा का असर इस तबके में रहेगा तबतक यही चलेगा ! शुभकामनायें आपको !

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  43. 'नारी' की ऐसी दयनीय अवस्था के लिए स्वयं 'नारी' ही उत्तरदायी हैं!

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  44. आदरणीय डॉ टी एस दराल जी
    नमस्कार !
    अभी भी नारी की स्थिती दयनीय शोकनीय है । अच्छी लघु कथा के लिये धन्यवाद।

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  45. प्रेमदिवस की शुभकामनाये !
    कुछ दिनों से बाहर होने के कारण ब्लॉग पर नहीं आ सका
    माफ़ी चाहता हूँ

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  46. डॉक्टर साहब ये तो खैर बिना पढ़ी लिखी घर पर काम करने वाली बाई थी...

    लेकिन उन पढ़े-लिखे लोगों की सोच का क्या जिनके घरों में बहुएं सर्विस पर जाती हैं...और जब घर वापस आती हैं तो उन्हीं से उम्मीद की जाती है वो घर का सारा कामकाज भी करें...

    परिवेश बदलता है पर सोच...

    जय हिंद...

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