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Monday, December 30, 2013

नांगलोई में काव्य गोष्ठी और एडवेंचर मेट्रो ट्रेल -- एक सफ़र की दास्ताँ !


तीन  साल से घटनाक्रम कुछ यूँ चलते रहे कि सभी साहित्यिक गतिविधियां लगभग बन्द सी हो गई थीं। इसलिए  जब राजीव तनेजा का काव्य गोष्ठी के लिये निमंत्रण आया तो हमने जाने का निर्णय ले लिया। लेकिन समस्या थी कि जाया कैसे जाये। दिल्ली के पूर्वी छोर से पश्चिमी छोर का रास्ता बहुत लम्बा था। लेकिन हमने जन्म लिया था दिल्ली के पश्चिमी बॉर्डर पर स्थित एक गाँव मे और अब काम करते हैं पूर्वी बॉर्डर पर। पश्चिम से पूर्व का यह सफ़र बहुत लम्बा और कठिन था। लेकिन अब पूर्व से पश्चिम का यह सफ़र भी कम कठिन नहीं लग रहा था क्योंकि इतनी दूर ड्राईव करना कोई समझदारी का काम नहीं था। हालांकि मेट्रो ठीक गोष्ठी स्थल तक जाती है लेकिन हम तो मेट्रो मे बस एक ही रूट मे बैठे थे। और यहाँ तो एक या दो बार मेट्रो बदलना आवश्यक था। मेट्रो से सफ़र का ख्याल आते ही हमे चचा ग़ालिब का एक शे'र याद आ गया जिसे हमने कुछ यूं लिखा : 

अफ़सरी ने 'तारीफ' निकम्मा कर दिया , 
वरना आदमी तो हम भी थे 'आम' से !  

खैर , हम तैयार हुए लेकिन तभी ख्याल आया कि ऐसे मे बच्चे अक्सर हमे कहते हैं कि ये क्या बुड्ढों वाले कपड़े पहन लिये हैं। इसलिये कोट और टाई निकाल कर लाल स्वेटर पहना , पावं मे स्पोर्ट शूज़ पहन लिये और सोचा अब देखते हैं कौन हमे बुड्ढा कहता है। फिर हमने श्रीमती जी से हमे मेट्रो स्टेशन तक छोड़ने का आग्रह किया लेकिन जल्दबाज़ी मे मोबाइल गाड़ी मे ही भूल गए। मोबाइल आने के बाद पहली बार ऐसा हुआ कि हम बिना मोबाइल के दूर के सफ़र पर निकल पड़े। हमने भी इसे एक एडवेंचर के रूप मे स्वीकार किया और निकल पड़े नांगलोई की ओर।   

हालाँकि इतवार का दिन था लेकिन मेट्रो खचाखच भरी हुई थी।  हमने किसी तरह से गेट के पास जगह बनाई और एक हेंडल पकड़ कर खड़े हो गए।  फिर सोचा गेट के पास तो सीट मिलने से रही। इसलिए थोडा बीच में खड़े हो गए।  तभी सामने वाली सीट पर बैठा एक युवक खड़ा हो गया और हम लपक कर बैठ गए।  फिर सोचा कि वह युवक खड़ा क्यों हो गया क्योंकि अभी तो स्टेशन भी नहीं आया था।  तभी हमारा ध्यान ऊपर की ओर गया तो पता चला वहाँ लिखा था -- केवल बुजुर्गों के लिए। इस आत्मबोध से हम हतप्रद रह गए।  

नांगलोई पहुंचकर स्टेशन के सामने ही था खम्बा नंबर ४२० जिसके ठीक सामने तनेजा जी का ऑफिस था जिसके प्रथम तल पर आयोजन था इस संगोष्ठी का।       



खुली छत को ओपन एयर रेस्ट्रां बनाया गया था।




अंदर कार्यक्रम का आरम्भ किया राजीव तनेजा जी ने।




सभापति और विशिष्ठ अतिथि आ चुके थे लेकिन मुख्य अतिथि यानि हमारी कुर्सी अभी खाली थी। कार्यक्रम का सञ्चालन वंदना गुप्ता जी कर रही थी।    



इस संगोष्ठी की एक विशेष बात यह रही कि इसमें पचास से ज्यादा लोगों ने भाग लिया।  ये सभी दिल्ली के चारों कोनो से आए थे और कुछ तो दिल्ली से बाहर से भी आए थे।  




दूसरी विशेषता यह थी कि लगभग आधे से ज्यादा उपस्थिति महिलाओं की थी जो वास्तव में प्रसंशनीय था।




मुन्ना भाई अविनाश वाचस्पति ने अपनी व्यंग प्रस्तुति से लोगों को गुदगुदाया।



युवा कवि और ब्लॉगर सुलभ जयसवाल। लेकिन यह मत समझिये कि ये माइक हाथ में लेकर कोई डांस कर रहे हैं ! फिर क्या कर रहे हैं ?




वंदना जी ने भी अपने चिर परिचित अंदाज़ में अपनी एक रचना पढ़कर सुनाई जिसे सभी ने बड़ी गम्भीरता से सुना ।





अंत में हमें भी कहा गया कि कुछ हम भी सुनाएँ।  हमने क्या सुनाया , यह तो सुनने वालों ने सुन ही लिया , अब क्या बताएं।  लेकिन सुना है कि सबको आनंद आया।

अंत में चायपान और पकोड़ा पार्टी के बाद हमने प्रस्थान किया फिर एक बार मेट्रो में खड़े होकर।  इस बार भीड़ पहले से भी ज्यादा थी , हालाँकि थोड़ी देर बाद बिना बुजुर्गी का अहसास दिलाये सीट भी मिल गई। अब हम बैठे बैठे देखते रहे कि कैसे मेट्रो में सफ़र करने वाले लगभग ९० % लोगों की आयु ४० वर्ष से कम थी और ५० के ऊपर तो शायद ५ % लोग भी नहीं थे।  ज़ाहिर था , युवाओं का ज़माना है और युवा इसका भरपूर इस्तेमाल भी कर रहे थे।  सामने वाली सीट पर एक सुन्दर सी मासूम सी १८ -२० साल की लड़की बैठी थी और उसका बॉय फ्रेंड उसके सामने खड़ा था।  दोनों इसी दशा में भी जिस तरह खुसर पुसर और भौतिकीय घटनाओं का प्रदर्शन कर रहे थे , उसे देखकर साथ बैठे एक महाशय ने अपनी आँखें बंद कर ली थी।  लेकिन और किसी को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था।  खुल्लम खुल्ला ऐसा पी डी ऐ देखकर हमें अपने जल्दी जवान होने पर गुस्सा सा आने लगा था।

उधर एक दूसरी सीट पर एक और १८ -२० वर्षीया मुस्लिम युवति , गोरी चिट्टी , सुन्दर सी लेकिन चेहरे पर मासूमियत लिए अपने एक साल के बच्चे के साथ बतियाती जा रही थी और अपनी स्नेहमयी ममता लुटाती जा रही थी।  आजकल बच्चे भी पैदा होते ही चंट हो जाते हैं।  ज़ाहिर है , विकास का अहसास उन्हें भी हो ही जाता है।  भले ही मेट्रो में हमें सभी आम आदमी ही नज़र आए लेकिन विकास का प्रभाव सभी पर साफ नज़र आ रहा था।  हालाँकि यह विकास सिर्फ शहरों में ही दिखाई देता है।  अभी भी देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा बाकि बचा है जहाँ पीने का पानी लाने के लिए भी महिलाओं को मीलों सफ़र तय करना पड़ता है।


नोट : इस संगोष्ठी में सभी कवियों और कवयत्रियों ने बहुत सुन्दर रचनाएं सुनाई।  एक सफल आयोजन के लिए राजीव तनेजा जी को बहुत बहुत बधाई। अंजू चौधरी , सुनीता शानू जी , रतन सिंह शेखावत , पी के शर्मा जी समेत अनेक ब्लॉगर्स और फेसबुक मित्रों से मिलना सुखद रहा।   





Thursday, December 19, 2013

आधुनिक मनुष्य को जंगली जानवरों से ही कुछ सीख लेना चाहिए --


पिछली पोस्ट से आगे --

पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ मात्र एक कोशिका से होकर आधुनिक मानव के विकास तक की कहानी करोड़ों वर्ष लम्बी है। मानव को स्वयं बन्दरों से विकसित होने में लाखों वर्ष लग गए। आरम्भ में आदि मानव जंगलों में अकेला रहता था , कंद मूल खाता था। जंगली जानवरों की तरह उसका सारा समय भोजन की तलाश में ही गुजरता था। फिर उसने समूह में रहना सीखा और मिलकर शिकार करने लगा। धीरे धीरे उसने रहने के लिए झोंपड़ी बनाना और खेती करना सीखा।  इस तरह उसने समाज में रहना शुरू किया।  समाज बना तो समाज के कायदे कानून भी बने जिनका पालन करना भी उसने सीख लिया। यही समाज विकसित होता हुआ एक दिन आधुनिक मानव के रूप में बदल गया।  

आधुनिकता में हम सदा पश्चिम से पीछे रहे हैं। विशेषकर वैज्ञानिक आविष्कार वहाँ हुए और हम तक पहुंचने में समय लगा। वैज्ञानिक युग में रहन सहन , खान पान और पहनावा बदलता रहा और हम पश्चिम के पीछे पीछे चलते रहे।  हालाँकि इस बीच हमारी अपनी सभ्यता का भी विकास हुआ जिसे विश्व में श्रेष्ठंतम भी माना गया। लेकिन हम अपना प्रभाव दूसरों पर इतना नहीं छोड़ सके जितना दूसरे हम पर।  हम पश्चिम को कुर्ता पाजामा या धोती और महिलाओं को साड़ी पहनना नहीं सिखा पाये लेकिन उनसे पैंट शर्ट और स्कर्ट एवम बिकिनी पहनना अवश्य सीख गए। 

इसी सीखने के क्रम में आता है समलैंगिकता।  भले ही यह मनुष्य जाति में सदियों से विद्धमान है लेकिन इसका पहले खुल्लम खुल्ला आह्वान पश्चिम में ही हुआ। अब यह लहर हमारे देश में भी फैलने लगी है जिसका समर्थन व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं।  देखा जाये तो प्रकृति की एक भूल का सहारा लेकर आज मनुष्य प्रकृति को ही दूषित करने में लगा हुआ है।  कुछ गिने चुने बदकिस्मत लोगों की आड़ में खाये पीये अघाये लोगों ने एक सुव्यवस्थित समाज के सभी कानूनों को ताक पर रख कर सम्पूर्ण मानव जाति को विनाश के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया है। आज मानव अधिकारों के नाम पर हम वो मांग रहे हैं जो न सिर्फ प्रकृति के विरुद्ध है बल्कि स्वयं मानव जाति के लिए घातक सिद्ध हो सकता है।  एक व्यवस्थाहीन समाज का भविष्य वैसा ही हो सकता है जैसे  शरीर में कैंसर  की कोशिकाएं फैलने से होता है।  

समलैंगिक समूह में विशेषतया चार किस्म के लोग शामिल होते हैं जिन्हे एल जी बी टी कहा जाता है यानि लेस्बियन , गे , बाई सेक्सुअल और ट्रांसजेंडर। इनमे से केवल ट्रांसजेंडर लोग ही ऐसे होते हैं जिनके साथ प्रकृति ने अन्याय किया होता है।  क्योंकि इन लोगों में बायोलॉजिकल सेक्स और जेनेटिक सेक्स अलग अलग होते हैं।  अर्थात ये बाहर से देखने में लड़का या लड़की होते हैं लेकिन जेनेटिकली इसका उल्टा होता है।  यदि बायोलॉजिकल सेक्स मेल है और जेनेटिक सेक्स फीमेल तो पैदा होने वाला बच्चा लड़का दिखेगा लेकिन बड़ा होते होते उसकी आदतें और हरकतें लड़कियों जैसी होंगी।  इसे कहते हैं लड़के के शरीर में लड़की।  ज़ाहिर है , व्यस्क होने पर यह लड़का दूसरे लड़कों की ओर ही आकृषित होगा न कि लड़कियों की ओर। यह सही मायने में समलैंगिकता है। हालाँकि कुछ परिस्थितियों में पूर्ण मेडिकल चेकअप के बाद सर्जरी द्वारा लिंग परिवर्तन भी किया जा सकता है।   

ट्रांसजेंडर के अलावा बाकि तीनों में तथाकथित सेक्सुअल ओरियंटेशन की प्रॉब्लम होती है। हालाँकि इसके विभिन्न कारण माने जाते हैं लेकिन कोई निश्चित कारण अभी पता नहीं चला है। सम्भवत : समलैंगिता अक्सर परिस्थितिवश ज्यादा विकसित होती है।  अक्सर इसका आरम्भ किशोर अवस्था में होता है जिस समय सेक्सुअल एनेर्जी अनियंत्रित होती है। यौन ऊर्जा का कोई उचित निकास न होने से समलैंगिकता परिस्थतिवश एक सुविधाजनक माध्यम बन जाता है।  इसीलिए इसके उदाहरण अक्सर हॉस्टल्स , कैम्पों , जेलों और आर्मी कैम्प्स आदि में बहुतायत से देखे जा सकते हैं।  लेकिन यह क्षणिक और परिस्थितिवश होता है जो परिस्थिति बदलने के साथ ही समाप्त भी हो जाता है।  

लेकिन कुछ ऐसे व्यवसाय भी हैं जहाँ समलैंगिकता एक फैशन सा बन गया है जैसे फैशन समाज , मॉडलिंग , फ़िल्म वर्ल्ड आदि।  बेशक इतिहास में इसके प्रमाण मिलना इसी बात को दर्शाता है कि यह मानव जीवन में सदा व्याप्त रहा है।  लेकिन मानव जाति में समय के साथ साथ बुराइयां कम और अच्छाइयां बढ़ने को ही विकास कहते हैं।  अब यदि पूर्ण विकसित होकर भी हम आदि मानव की तरह व्यवहार करने लगेंगे तो यह विनाश की ओर पहला कदम होगा।  

एल जी बी समलैंगिकता प्रकृति के विरुद्ध कदम है। इसे अपराध की श्रेणी में लाये जाने पर मतभेद हो सकता है।  लेकिन समलैंगिकता मनुष्य की कुटिल बुद्धि का एक बहुत छोटा सा ही रूप है। मनुष्य यौन सम्बन्धों के मामले में इससे कहीं ज्यादा कुटिल और निर्दयी हो सकता है। इसी को विकृति कहते हैं।  यौन विकृति के कुछ उदाहरण हैं -- पीडोफिलिया यानि बच्चों के साथ यौनाचार , बेस्टिअलिटी यानि पशुओं के साथ यौनाचार , ऍक्सहिबिसनिस्म यानि सरे आम नंगा होकर घूमना , ट्रांसवेस्टिस्म यानि महिलाओं के कपडे पहनकर आनंदित होना , सैडिज्म यानि महिला को दर्द देकर यौनाचार करना आदि ऐसे मानसिक विकार हैं जो मूलत : मनोरोग की श्रेणी में आते हैं। ये विकार निश्चित ही अपराध हैं।  हालाँकि ऐसे लोगों को उपचार की भी आवश्यकता होती है।                 
अंत में यही कहा जा सकता है कि समाज के कायदे कानून समाज की भलाई के लिए बनाये जाते हैं।  इनका पालन करने से ही समाज में व्यवस्था बनी रहती है।  जंगली जानवरों में भी समूह के नियम देखे जाते हैं जिन्हे तोड़ने पर सजा भी मिलती है।  क्या हम जंगली जानवरों से भी बदतर होते जा रहे हैं ! 

       

Thursday, December 12, 2013

यदि पश्चिमी सभ्यता को अपनाना है तो उनकी अच्छाइयों को भी अपनाना होगा --


समलैंगिक सम्बन्धों पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद टी वी चैनलों , अख़बारों और सोशल साइट्स पर इस विषय पर लोगों की  रूचि और विचारों को पढ़कर यह महसूस हो रहा है कि समलैंगिकता समाज में व्यापक तौर पर मौजूद है। लेकिन हैरानी इस बात पर हो रही है कि इसके समर्थन में लोगों का विशेषकर युवा वर्ग का बहुत बड़ा भाग उठ खड़ा हुआ है।  इसके समर्थन में न सिर्फ पत्रकार , फैशन जगत और फ़िल्म जगत के लोग दिखाई दे रहे हैं , बल्कि आम आदमियों में भी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है।  जबकि धार्मिक संस्थाओं सहित परिपक्व और रूढ़िवादी लोगों के अनुसार कोर्ट का यह निर्णय सही है।   

इस विषय के पक्ष या विपक्ष में कुछ भी न कहते हुए ( क्योंकि यह अपने आप में एक बेहद विस्तृत चर्चा का विषय है ) , यह कहना कदाचित अनुचित नहीं होगा कि समलैंगिक सम्बन्धों को मान्यता प्रदान करने की मांग मूलत: पश्चिम की अंधाधुंध नक़ल है।  कहीं न कहीं हम अपनी संस्कृति को भूलकर एक मृग मरीचिका के शिकार हो रहे हैं।  इस प्रक्रिया में हम धोबी के कुत्ते जैसे -- घर के न घाट के -- बनते जा रहे हैं। न हम पुरबिया रहे , न पश्चिमी बन सके।  क्योंकि हम पश्चिम की बुराइयों की नक़ल तो कर रहे हैं , लेकिन अच्छाइयों की नहीं। यदि पश्चिमी सभ्यता को ही अपनाना है तो उनकी अच्छाइयों को भी अपनाना होगा।

यदि पश्चिमी देशों की नक़ल करनी है तो नक़ल करिये :

* उनके अनुशासन , कर्मनिष्ठा और  कर्तव्यपरायणता की।
* यातायात के नियमों को पालन करने की ।
* शहर को स्वच्छ रखने की आदत की ।
* ईमानदारी से टैक्स भरकर विकास में योगदान देने की ।
* आबादी , प्रदुषण और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण रखने की।

लेकिन यह सब करने के लिए जो इच्छाशक्ति चाहिए वह तो हम में है ही नहीं।  यह काम तो हम दूसरों पर छोड़ देते हैं।  कानून और सरकार से हम डरते नहीं क्योंकि सब जगह हमारा कोई न कोई चाचा या मामा बैठा रहता है।  हम तो मनमौजी हैं और अब हमारी मौज में दखल पड़ गया है।  इसलिए विरोध कर रहे हैं।

ज़रा सोचिये हम अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए क्या तैयार कर रहे हैं !

Tuesday, December 3, 2013

लोग क्या कहेंगे -- आजकल कोई कुछ नहीं कहता !


अक्सर सुनने में आता है -- लोग क्या कहेंगे।  इसी कहने के डर से लोग कुछ करने में डरते हैं।  लेकिन लगता है कि यह कहने की बात पुऱाने ज़माने में होती थी।  अब कुछ कहने वाले बचे ही कहाँ हैं। आधुनिकता की दौड़ में  लोगों को सोचने की ही फुर्सत नहीं है , फिर कुछ कहने के लिए समय कहाँ से आएगा।

हमारे पड़ोस में एक सरदारजी रहते हैं।  सरदार सरदारनी दोनों बड़े सोहणे और हंसमुख हैं।  सरदारनी तो लोगों के बीच ही हंसती मुस्कराती है लेकिन अक्सर सुबह या शाम को सैर करते समय हमने पाया कि सरदारजी सैर करते करते मुस्कराते रहते हैं और होठों ही होठों में कुछ बुदबुदाते रहते हैं।  हम सोचते थे कि शायद ओशो के भक्त होंगे , इसलिए वॉक के साथ साथ मेडिटेशन करते होंगे ! या फिर मन ही मन गुरबाणी का पाठ करते होंगे।  फिर एक दिन पाया कि पास से गुजरते हुए अब वो इतने जोर से गाने लगे थे कि सुनायी पड़ने लगा था कि वो क्या गा रहे हैं।  दरअसल वो गुरबाणी नहीं बल्कि ग़ज़ल गुनगुना रहे थे।  उन्हें यूँ ग़ज़ल गाते गाते घूमते हुए देखकर उनके मनमौजी होने का अहसास होता था।

लेकिन अभी कुछ दिनों से उन्हें अपने पप्पी के साथ सुबह सुबह सोसायटी के पार्क में बेंच पर बैठकर जोर जोर से गाते हुए सुनकर बड़ा अचम्भा हुआ।  पार्क से आती आवाज़ दो ब्लॉक्स के बीच गूंजती है।  इसलिए और भी जोर से सुनाई देती है।  उन्हें यूँ गाते देखकर एक बार तो लगा कि लोग क्या सोचेंगे , क्या कहेंगे।  लेकिन सच में न तो कोई कुछ सोचता है , न कोई कुछ कहता है।

हालाँकि ऐसे व्यक्ति को लोग या तो सनकी कहते हैं , या थोड़ा खिसका हुआ। लेकिन देखा जाये तो आज किस के पास समय है कि वो किसी दूसरे के बारे में सोचे जबकि स्वयं अपने ही बारे में सोचने से फुर्सत नहीं मिलती।
शायद यह अपने मन का भ्रम ही है कि हम सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे ! आजकल लोग न कुछ कहते हैं , न सोचते हैं।  


Monday, November 18, 2013

हर-की-दून घाटी में ट्रेकिंग -- एक संस्मरण।


सन १९९४ की बात है। अस्पताल में हर की दून ट्रेकिंग का एक विज्ञापन देख कर हमें कौतुहल हुआ और ट्रेकिंग पर जाने का मन बन आया।  लेकिन साथ जाने के लिए जब कोई तैयार नहीं हुआ तो हमने अकेले ही जाने का मन बना लिया।  वैसे भी इस ट्रेकिंग का  आयोजन एक अत्यंत अनुभवी और विश्वसनीय ट्रेकर समूह ने किया था। रोज एक बस भरकर जाती और सारा प्रबंध आयोजकों द्वारा किया गया था।  एक तरह से यह एक आरामदायक ट्रेक था जो नए लोगों के लिए बहुत लाभदायक था।

बस में गुजरात से आये स्कूल और कॉलेज के छात्रों का समूह था।  साथ ही हम दिल्ली के कुछ कामकाज़ी युवक भी थे।  हालाँकि इनमे उम्र के लिहाज़ से सबसे बड़े तो हम ही थे। लेकिन सभी अनजान थे।  परन्तु जल्दी ही सबसे परिचय हो गया और शुरू हो गया ११ दिन का एक सुहाना सफ़र जो एक यादगार बनने वाला था।
तू चीज़ बड़ी है मस्त मस्त और अम्मा देख तेरा मुंडा बिगाड़ा जाये जैसे गाने सुनते सुनते अगले दिन सफ़र पूरा हुआ संकरी जाकर। हृषिकेश होते हुए उत्तरकाशी क्षेत्र में आखिरी मोटरेबल रोड़ संकरी जाकर ख़त्म हो गई।  यहाँ रात में रूककर अगले दिन से ट्रेकिंग शुरू होने वाली थी।    



अपना अपना रकसैक  कमर पर लादकर हम तैयार थे ट्रेकिंग यानि पैदल खाक छानने के लिए।  हमारा पहला कैम्प था तालुका जो करीब ८ -१० किलोमीटर दूर था।  नदी किनारे जंगल में टेंट में रुकने का यह हमारा पहला अनुभव था।  शहरी जिंदगी को भूलकर बिल्कुल साधारण जीवन की पहली झलक थी।

यहीं हमने पहली बार रात के समय बोनफायर पर सबको गाना सुनाया -- आँखों में क्या जी , रुपहला बादल ( फ़िल्म नौ दो ग्यारह ) और झूमता मौसम  मस्त महीना , चाँद से गोरी एक हसीना , आँख में काजल मुँह पे पसीना , याला याला दिल ले गई।  गाने सुनकर बोनफायर की आग और तेज हो गई।




अगले दिन टोंस नदी के किनारे किनारे १५-१६ किलोमीटर का सफ़र घने जंगल से होकर था।  दूसरा कैम्प लगा सीमा नाम के गांव में जहाँ एक दो झोंपड़ियां ही थी। अगले दिन का सफ़र सबसे लम्बा और कठिन था क्योंकि इसमें पहले उतराई और फिर चढ़ाई थी।

उतरकर हमने नदी पार की और पहुँच गए इस क्षेत्र के सबसे आखिरी गांव ओसला में, लेकिन यहाँ रुके नहीं।  यहाँ जो लोग रहते हैं वे कौरवों के वंसज कहलाते हैं।  इसलिए यहाँ कौरवों को पूजा जाता हैं।  एक और विशेषता यह थी कि यहाँ अभी भी पॉलीएंड्री ( एक से अधिक पति ) का प्रचलन था।




ओसला के बाद चढ़ाई थोड़ी खड़ी हो जाती है।  रास्ता भी कहीं कहीं संकरा है जिससे संभल कर चलना पड़ा।  लेकिन फिर ट्रेक गेहूं के खेतों से होकर गुजरा जो एक अचंभित करने वाला नज़ारा था।



रास्ते में एक झरना आया तो फोटो सेशन होना स्वाभाविक था।





ऊँचाई पर पहुंचकर सब पस्त होने लगे थे।  इसलिए बीच बीच में आराम करना अच्छा लग रहा था।  ऐसे में गुजराती लोगों के देसी घी से बने स्नैक्स आदि खाने में बड़ा मज़ा आया।  




यह नज़ारा नदी के पार घने जंगल का है जहाँ एक झरना बड़ा मन लुभा रहा था।




लेकिन जंगल इतना घना था कि वहाँ जाने की सोच भी नहीं सकते थे।  वैसे भी यहाँ भालू होने की सम्भावना बहुत थी।
अंत में हम पहुँच ही गए हर की दून घाटी जहाँ बिल्कुल नदी के किनारे हमारा कैम्प लगा था।  पहले रात तो सब थके हुए थे।  इसलिए अगले दिन कैम्प से आगे जाने का कार्यक्रम था जहाँ बर्फ नज़र आ रही थी।




यह बर्फीला रास्ता आगे किन्नौर की ऒर जाता है।  



बर्फ में मौज मस्ती के बीच कुछ घंटों की तफ़री।  यहाँ ऊपर चढ़कर एक पॉलीथीन की रेल बनाकर फिसलते हुए नीचे आना बड़ा रोमांचल लगा।





दायीं और का नज़ारा जहाँ बर्फ से ढकी चोटियां दिखाई दे रही थी।




यहाँ एक के बाद एक पांच चोटियां दिखाई देती हैं जिन्हे स्वर्गरोहिणी कहते हैं।  कहते हैं इन्ही चोटियों से होकर पांडव सशरीर स्वर्ग की ओर गए थे।  इसीलिए इनका नाम  स्वर्गरोहिणी पड़ा। यहाँ धुप में मौसम बहुत सुहाना था।  लेकिन बादल आते ही एकदम ठण्ड हो जाती थी।  रात में कल कल करती नदी के किनारे सोना बहुत रोमांचक था।

लेकिन आज सोचते हैं कि यदि कोई बादल फट जाता तो हम कहाँ जाकर रुकते , यह कहना मुश्किल है।  आखिर पहाड़ों में मानव भगवान भरोसे ही होता है।  फिर भी हर गर्मियों में यहाँ सैंकड़ों सैलानी पैदल चलकर प्रकृति की मनभावन सुंदरता का लाभ उठाते हैं।  




आखिरी कैम्प में पूरा दल।  

नोट : पहाड़ों में ट्रेकिंग पर जाने के लिए शारीरिक रूप से सक्षम होना बहुत आवश्यक है।  इसके लिए आपको कम से कम दो सप्ताह पहले पैदल चलने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए ताकि आप पैदल चलने के अभ्यस्त हो जाएँ।  साथ ही यह भी ध्यान रखें कि आपके पास ज़रुरत की सभी चीज़ें हों।  खाने के लिए ड्राई फ्रूट्स आदि रखना समझदारी का काम है।  सामान कम से कम रखें क्योंकि आप को ही उठाना है।  जूते पुराने लेकिन मज़बूत होंने चाहिए।   

अंत में यही कह सकते हैं कि ट्रेकिंग एक शारीरिक व्यायाम है जिससे तन थकता है लेकिन मन तरो ताज़ा हो जाता है।  




Thursday, November 14, 2013

खाली पड़ा पिज़रा हंसा , चला गया उड़ के --- एक श्रद्धांजलि .


पुराने ज़माने में  हरियाणा में लोकगीतों का बड़ा महत्त्व होता था।  गायकों को भजनी कहा जाता था ।  किसी भी विशेष अवसर पर भजनियों को बुलाकर संगीतमय कार्यक्रम ही मनोरंजन का सबसे बड़ा साधन होता था. भजनी भी दो तरह के गीत या गाने सुनाते थे -- एक पौराणिक गाथाओं से सम्बंधित जिनमे धार्मिक और दार्शनिक सामग्री ज्यादा होती थी . दूसरे रोमांटिक गीत जिन्हे रागनी कहा जाता था . लेकिन सामाजिक कार्यक्रमों मे सिर्फ भजन ही सुनाये जाते थे .


लोकगीतों के गायकों मे लक्ष्मीचंद ( लखमीचंद ) का नाम बड़ा मशहूर था . हमारे पिताजी को भी गाने का बड़ा शौक था . आवाज़ भी अच्छी थी और गाते भी अच्छा थे . उन्ही से अक्सर राजा हरिश्चंद्र के किस्से से लिया गया एक गीत हम सुना करते थे जिसमे सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र सत्‍य पर कायम रहने के लिये अपना सारा राज पाट छोड़ कर एक शमशान भूमि मे नौकरी करने लगता है. एक दिन उनकी रानी उनके बेटे की लाश लेकर दफनाने के लिये आती है जिसे सांप ने काट लिया था . लेकिन राजा शमशान कर मांगता है जिसे वह देने मे असमर्थ रहती है . आखिर लाश के पास बैठी रोने लगती है तब राजा कहता है :

सुनता ना कोई रे , यूं रोवना फिज़ूल है,
विपदा की मारी तेरै, ममता की भूल है !  

खाली पड़ा पिज़रा हंसा , चला गया उड़ के, 
जाये पीछे फेर कोई , आया नहीं मूड के ! 
पांच तत्व जुड़ के सारी, काया का स्थूल है !  
विपदा की मारी तेरै, ममता की भूल है !  

इसी तरह के अनेक गाने हम पिताजी से सुनते आये थे . सिर्फ गाने ही नहीं , उनका हरियाणवी ह्यूमर भी गज़ब का था जो हमारे भी बहुत काम आया . रोज सुबह पार्क की ६-७ किलोमीटर की सैर करना उनके लिये आम बात थी . एक दिन पार्क की पगडंडी पर चलते हुए एक शख्श दो बार सामने से बिना नमस्ते किये हुए निकल गया . तीसरी बार पिताजी ने पकड़ लिया और बोले -- क्यों भाई , तू कोए लाट साब है या डी सी लगा हुआ है ! वो हैरान होकर बोला -- क्यों साहब , कोई गलती हो गई क्या ? पिताजी बोले -- भाई तू तीन बार सामने से गुजर गया , ना दुआ ना सलाम ! ये कोई बात हुई ! अब वो बेचारा क्या बोलता -- सॉरी बोल कर पीछा छुड़ाया . 

उनकी ऐसी ही दबंग बातों से सारे क्षेत्र मे उनका दबदबा आज भी कायम है ! आज उनकी तीसरी पुण्य तिथि है . सच है कि हंस के उड़ जाने के बाद वो कभी वापस नहीं आता ! लेकिन उनकी यादें ओर उनसे सीखे गए सबक सदा याद रहेंगे . 

Wednesday, November 6, 2013

व्यस्त जीवन मे हंसने के क्षण निकालना भी आवश्यक है -- कुछ हंसिकाएं !


1) दो कंजूस : 

दो कंजूस मित्रों की हुई शादी 
और बात हनीमून की आई ,
तो एक कंजूस ने चिंता ज़ताई 
यार यह तो बिना बात का खर्चा आ गया ! 
दूसरा कंजूस बोला सच कहा भाई  
इसीलिये आधा खर्चा बचाने को , 
मैं तो हनीमून पर अकेला ही चला गया ! 
पहला बोला यार सब फिज़ूलखर्ची है  
मैने तो पूरा ही खर्चा सहेज लिया !
और हनीमून पर पत्नी के साथ
अपनी जगह पड़ोसी को भेज दिया !

2) काम : 

मीटिंग खत्म हुई तो
बॉस पी ए से बोला,
आज तो बहुत देर हो गई !
अब घर जाकर भी काम संभालना पड़ेगा ! 
पी ए बोली , सर उसकी चिन्ता नहीं है ,
खाना बनाने का काम
आजकल हमारे पतिदेव कर रहे हैं! 
बॉस बोला डियर तुम्हारी नहीं,
हम तो अपनी बात कर रहे हैं !! 

3) डांट :

एक अफसर की पी ए देर से आई , 
साहब ने उसे जमकर डांट लगाई !
हमने कहा ज़नाब , 
काहे बेचारी महिला को डांट लगाते हैं !
वो बोले भैया , ये दफ्तर की बात है, 
घर मे तो डांट हम खुद ही खाते हैं !  

4) कविता चोर कवि :

एक बार हमने कविता सुनाई ,
सुनकर श्रोताओं ने जमकर तालियाँ बजाईं ! 
तभी एक महिला आकर बोली , 
डॉक्टर साहब कमाल है,
हम क्या सोचते थे, आप क्या निकले ! 
आप बड़े शरीफ दिखते थे,
आप तो असली कवि निकले ! 
बात हमे तब समझ मे आई, 
जब पता चला कि वो जिस कवि की फैन थी ,
उसी की काव्य गोष्ठी से होकर आई थी !
और हमने अपने नाम से
उसी कवि की कविता चुराकर सुनाई थी ! 

5) 

क्रांति :

कभी मां बाप बेटे से कहते थे,
बेटा सुन्दर , सुशील
गृह कार्य मे दक्ष  , 
लड़की से ही शादी करना !  
आजकल कहते हैं, बेटा 
शादी लड़की से ही करना !!

नोट : कृपया बताएं कौन सी हंसिका सबसे ज्यादा पसंद आई ! ( कोई भी पसंद न आई हो तो भी बताएं ) 



Friday, November 1, 2013

दीवाली के मच्छरों पर एक सामाजिक शोध कविता ---


दीवाली पर मच्छरों की भरमार पर प्रस्तुत है एक पूर्व प्रकाशित रचना :




एक दिन हमारी कामवाली बाई
सुबह सुबह घर आते ही बड़बड़ाई ।

बाबूजी, ये द्वार पर कौन मेहमान खड़े हैं ,
हैं तो लाखों करोड़ों, पर सब बेज़ान पड़े हैं ।

ये कहाँ से आते हैं, क्यों आते हैं,
हम तो समझ ही नहीं पाते हैं ।

और इनका नाज़ुक मिजाज़ देखिये ,
रोज रूपये की तरह लुढ़क जाते हैं ।

मैंने कहा बेटा, ये बिन बुलाये मेहमान जो बेज़ान हो गए हैं,
ये स्वतंत्र भारत के वो नागरिक हैं जो अपनी पहचान खो गए हैं ।

इनका तो जन्म लेना भी कुदरत की बड़ी माया है ।
क्योंकि इनके लघु जीवन पर प्रदूषण की पड़ी छाया है ।

प्रदुषण से परिवर्तित इनका अस्तित्त्व हो गया है ।
इसीलिए नेताओं की तरह इनका भी व्यक्तित्व खो गया है ।

उस दिन शाम रौशन होते ही वो फिर आ गए ।
दीवाने परवाने से हर विद्धुत शमा पर छा गए ।

मैंने पूछा -- आप कौन हैं
कहाँ से आए हैं, और क्यों आए हैं ?

उनमे से एक जो ज्यादा ख़बरदार था,
शायद उस झुण्ड का सरदार था ।

बोला --हम उत्तर भारत से आए हैं,
रोजी रोटी की तलाश में, दिल्ली के आसरे ।

हमने कहा आइये, आपका स्वागत है,
अरे हम नहीं हैं बेरहम बेशर्म बावरे ।

हम दिल्लीवाले दिल वाले हैं, मेहमान नवाज़ी के साये में पाले हैं ।
तभी तो दिल्ली के द्वार सभी के लिए खुले हैं ।

लेकिन यह तो बताईये, आप रोज रोज क्यों चले आते हैं ?
वो बोला हम तो इंसानी सभ्यता की चकाचौंध से खिंचे चले आते हैं ।

लेकिन इस रौशन दुनिया को
इतना असभ्य और मतलबपरस्त पाते हैं ।

कि जल कर राख ना हो जाये अपनी ही लौ में शमा ,
इसलिए हम तो पतंगा बन, खुद ही पस्त हो जाते हैं ।

देखिये ये जो हमारी खेप अभी उड़कर आई है ।
ये सही में मच्छर नहीं, देश में बढती महंगाई है ।

सामने वाली लाईट पर जो इनकी भरमार है ।
वह दरअसल देश में फैला हुआ भ्रष्टाचार है ।

और जो ज़मीं पर बिखरा इनका सामान है ।
वो असल में इंसान का गिरा हुआ ईमान है ।

अरे हमें मच्छर समझना आपका भ्रम है ।
क्योंकि हम मच्छर नहीं इंसान के बुरे कर्म हैं ।

जिस दिन इंसान में इंसानियत जाग जायेगी !
हमारी ये नस्ल लुप्त हो खुद ही भाग जायेगी !

Sunday, October 27, 2013

कॉरपॉरेट कल्चर ने परिवारों को अकेला बना दिया है --


बच्चों को खिला पिला कर,
पोंछती जब माथे का पसीना ! 
एक चमक होती चेहरे पर,
आत्मसंतुष्टि से भर जाता सीना !
रात मे खाना खाते समय वो 
अब सोचा करती है ख्यालों मे कहीं, 
क्या खाया होगा आज बच्चों ने ! 
जाने खाया भी होगा या नहीं !!
लाल के गाल थे कम लाल,
कुछ पतला भी हो गया था ,
जब घर आया था पिछले साल ! 
बिटीया भी अब कहाँ चहकती है , 
भूल सी गई है खिलखिलाना !
सोने लगते हैं जब हम यहाँ ,
तब होता है उसका घर आना !   
ना अम्मा है वहां ना दादी ,
अकेलेपन के हो गए हैं आदी !
महेनों तक बच्चे, अब घर नहीं आते,  
ये मुए कॉरपॉरेट दफ़्तर वाले  
काम कुछ कम क्यों नहीं कराते ! 
क्या ज़माना आ गया है ,
मात पिता की दी हुई शिक्षा ने ही 
बच्चों को मात पिता से दूर करा दिया है !


Friday, October 18, 2013

सुपात्र को दिया गया दान ही सात्विक और सार्थक दान होता है --


आज से २५ -३० वर्ष पूर्व जब हमने गृहस्थ जीवन मे प्रवेश किया तब इंपोर्टेड इलेक्ट्रॉनिक संयंत्रों की बहुत मांग होती थी. क्योंकि तब आर्थिक उदारीकरण लागू नहीं था, इसलिये अधिकतर सामान बाहर से मंगाया जाता था जो अवैधानिक तौर पर ज्यादा होता था. इसीलिये जगह् जगह इंपोर्टेड सामान बेचने की ग्रे मार्केट्स खुली थी जिनमे सारा सामान महंगे सस्ते दाम पर मोल भाव कर खरीदा बेचा जाता था. लेकिन हम जैसे कानून के दायरे मे रहने वालों के लिये सस्ता और इंपोर्टेड सामान खरीदने का एक और तरीका भी था . वह था , एम्बेसी सेल्स का . अक्सर जब कोई विदेशी राजनयिक स्थानांतरित होकर देश छोड़कर जाता तो वह अपने घर के सारे सामान की सेल लगाकर सस्ते दाम पर बेच जाता . हालांकि हमने भी कई बार इन सेल्स के चक्कर लगाये लेकिन खरीद कभी नहीं पाये क्योंकि इस्तेमाल किया हुआ पुराना सामान खरीदने का मन ही नहीं किया . फिर आहिस्ता आहिस्ता घर गृहस्थी का सारा सामान जुटा लिया. इस बीच सरकार की आर्थिक नीतियाँ भी बदली और देश मे ही सभी तरह का सामान मिलने लगा . अब हालात ऐसे हैं कि पुराना सामान आप बेचना भी चाहें तो कोई खरीदार नहीं मिलता क्योंकि अब मध्यम वर्गीय समाज की सामर्थ्य भी नया सामान खरीदने की हो गई है .  

लेकिन एक समाज ऐसा भी है जिन्हे आज भी पुराने सामान की कद्र होती है क्योंकि न उनकी इतनी सामर्थ्य होती है कि वे नया सामान खरीद सकें , न ही उन्हे आवश्यकता होती है . हमे घरेलू सेवाएं प्रदान करने वाले ये निम्नवर्गीय लोग जैसे काम वाली बाई , सुरक्षा कर्मचारी तथा सफाई कर्मचारी आदि लोग पुराने सामान को भी पाकर स्वयं को धन्य समझते हैं. ऐसे मे भाग्यशाली धनाढ्य लोगों का फ़र्ज़ है कि वे अपने पुराने सामान को फेंकने के बजाय इन गरीबों को ही दान कर दें ताकि उनके बच्चे भी इन आधुनिक संयत्रों का आनंद ले सकें . 

हमारी काम वाली भले ही छोटे से किराये के मकान मे रहती हो , लेकिन उसके ठाठ बाठ देख कर उसके गावं वाले बड़े प्रभावित होते हैं . उसका कहना है कि उसके गांव मे उसकी इज़्ज़त और रुतबा एक सेठानी जैसा है . हमे भी लगता है कि कहीं उसके घर पर इनकम टैक्स वालों की रेड ही न पड़ जाये ! क्योंकि घर मे २९ इंच का रंगीन टी वी , १००० वॉट का थ्री इन वन म्यूजिक सिस्टम , और कम्प्यूटर समेट सुख सुविधाओं का सारा साजो सामान मौजूद है . यह अलग बात है कि यह अधिकांश सामान हमारा ही दिया हुआ है.  

हमे भी लगता है कि पुराने समान का जब कोई खरीदार ही नहीं तो क्यों ना ऐसे व्यक्ति को दे दिया जाये जिसके लिये वह भी एक उपलब्धि सी हो. आखिर दान करना भी एक पुण्य का काम है . लेकिन सही मायने मे दान तभी सार्थक होता है जब वह सुपात्र को किया जाये .
गीता अनुसार दान भी तीन प्रकार के होते हैं -- सात्विक , राजसी और तामसी . 

सात्विक दान : जो दान उत्तम ब्राह्मण को किया जाये , जिसे संसारी कामना की इच्छा न हो, स्वयं बिना इच्छा के किया जाये, वह सात्विक दान कहलाता है .  
राजसी दान : किसी इच्छा की कामना करते हुए किया गया दान जिसमे दान के बदले उपकार की अपेक्षा हो, वह राजसी दान कहलाता है . 
तामसी दान : क्रोध और गाली देकर कुपात्र को दिया गया दान तामसी होता है . 

वर्तमान परिवेश मे अधिकांश लोग राजसी प्रवृति के तहत इच्छा पूर्ति के लिये दान करते हैं. अक्सर लोग मंदिरों मे दान बाद मे करते हैं , मन्नत पहले मांग लेते हैं . यानि यह दान सशर्त होता है . यह अज्ञानता की निशानी है . इसी तरह कई बार देखा जाता है कि दान किया गया धन न तो ज़रूरतमंद के पास पहुंच पाता है और ना ही उसका सही उपयोग हो पाता है . ऐसा दान वास्तव मे धन को नष्ट करना है .  

सभी मध्यम वर्गीय परिवारों के घरों मे अनेक सामान ऐसे होते हैं जो वर्षों से या तो पेकेट मे बंद पड़े होते हैं या जिन्हे सालों तक इस्तेमाल कर दिल भर जाता है. विशेषकर पुराने सामान को अब कोई नहीं खरीदता. ऐसे सामान को यदि किसी गरीब और ज़रूरतमंद को दान कर दिया जाये तो निश्चित ही पाने वाले को अपार खुशी का अहसास होगा। और यही सार्थक दान होगा. 
      
नोट : त्यौहारों के इस मौसम मे अपना घर साफ करके भी आप दूसरों के घर रौशन कर सकते हैं ! 
         

Monday, October 14, 2013

मोटरसाइकल चलाते समय सर के बालों से ज्यादा सर की सुरक्षा आवश्यक है --


चौराहे पर जैसे ही बत्ती लाल हुई और गाडी स्टॉप लाइन से पहले रुकी, तभी एक छोटी बच्ची ज़ेब्रा क्रॉसिंग पर खडी होकर तमाशा दिखाने लगी. पतली दुबली मैली कुचैली , उम्र यही कोई ६ वर्ष रही होगी , हालांकि कुपोषित बच्चों मे सही आयु का पता लगाना लगभग असंभव सा होता है. बच्ची कलाबाज़िया खाती हुई सड़क पर उछल कूद मचा रही थी। अब तक उसके आस पास कई मोटरसाइकल आकर रुक गई थी.
एक दो मिनट नटबाज़ी दिखा कर फिर उसने हाथ फैलाने शुरू कर दिये. इस बीच एक और बच्ची जो मुश्किल से दो साल की रही होगी , भीख मांगने का काम शुरू कर चुकी थी. वह सर उठाये और एक हाथ फैलाये एक मोटरसाइकल सवार के आगे खडी थी. कुछ पल उसे निहारने के बाद युवक ने ज़ेब से निकाल कर एक सिक्का बच्ची के हाथ मे रख दिया. सिक्का हाथ मे आते ही बच्ची ने सर झुका कर हाथ मे रखे सिक्के को देखा और उसके चेहरे पर अनायास ही एक मासूम सी संतुष्ट मुस्कान फै़ल गई. ज़ाहिर था , दो साल की मासूम बच्ची भी पैसे की ताकत को पहचानती थी. 

वह मोटरसाइकल सवार युवक अब एक हाथ मे मोबाइल पकड कर उसे दर्पण की तरह प्रयोग करते हुए मोबाइल के स्क्रीन मे अपना चेहरा देख रहा था. उसने हैलमेट को उतार कर हेंडल पर टांग दिया था और दूसरे हाथ से बालों को संवार रहा था. वह एक हाथ से एक कुशल कारीगर की तरह अपने बालों को ऐसे सेट कर रहा था जैसे कोई मूंगफली बेचने वाला मूंगफलियों को आग की हांडी के चारों ओर सजाता है. पूर्ण रूप से संतुष्ट होने के बाद उसने जेब से एक रुमाल निकाला और एक मंजे हुए जादूगर की तरह उसकी तह खोली. हमने सोचा शायद मोबाइल के स्क्रीन को साफ करना चाहता है. लेकिन उसने बड़ी सफाई से रुमाल को सर पर बिछाया और इतमिनान से सर के पीछे गांठ लगाई. फिर हैलमेट उठाकर सर पर रख लिया. लेकिन हैलमेट को बांधने के लिये कोई प्रायोजन नहीं था. यह देख कर हम तो सकते मे आ गए। क्योंकि युवक ने हैलमेट सर पर रख कर अपने माल की रक्षा का प्रबन्ध तो कर लिया था , लेकिन जान की सुरक्षा के बारे मे उसने सोचा ही नहीं. ज़ाहिर था, उसे सर से ज्यादा सर के बालों की चिन्ता थी. इस बीच बत्ती हरी हो गई और वह युवक फर्राटे से हवा से बातें करने लगा. हम तो बस उसकी सलामती की दुआ करते हुए आगे बढ गए.        

नोट : दो पहिये वाहन चालकों को हैलमेट पहन कर ड्राइव करना चाहिये. लेकिन हैलमेट को मजबूती से बांधना भी आवश्यक है. किसी भी दुर्घटना के समय यह जीवन रक्षक साबित हो सकता है.   

Sunday, October 6, 2013

छत पर भूल भुलैया , गाइड संग जाना भाभी भैया --


लखनऊ यात्रा के दौरान कुछ घंटों का समय था , इसलिये शहर घूमने के लिये निकल पड़े. देखने के लिये एक ही एतिहासिक जगह थी -- बड़ा इमामबाड़ा. शहर के पुराने क्षेत्र मे इस शानदार कृति को लखनऊ के नवाब असफ़ उद् दौला ने अठारहवीं सदी मे बनवाया था.  





१८ मीटर ऊंचे रूमी दरवाज़े से होकर जब आप अंदर आते हैं तो यह नज़ारा दिखाई देता है.   


 हरे भरे लॉन के चारों ओर रास्ता बना है.  




दायीं ओर एक मस्जिद है.  




इसे आसफ़ी मस्जिद कहते हैं.  



मुख्य इमामबाड़ा मे एक करीब ५० मीटर लम्बा हॉल बना है जिसकी खूबसूरती यह है कि इसमे एक भी बीम का सहारा नहीं लिया गया है. इस हॉल मे आसफा उद् दोला का मक़बरा बना है और साथ ही इसके आर्किटेक्ट की कब्र भी. कहते हैं इसे नवाब साहब ने उस समय बनवाया था जब वहां अकाल पड़ा हुआ था. इसे बनवा कर उन्होने लोगों को काम दिया जिससे गुजर बसर हो सके. इस हॉल के चारों ओर अनेक चेम्बर बने हैं जिनमे विभिन्न प्रकार के ताज़िये रखे हैं। इन चेंबर्स के उपर जो भवन है , उसे भूल भुलैया कहते हैं क्योंकि इसमे इतने रास्ते और सीढ़ियाँ बनी हैं कि यदि बिना गाइड के घुस गए तो थक कर चूर हो जायेंगे लेकिन बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिलेगा.     




यहाँ गाइड तो वैसे भी अनिवार्य है.  




इमामबाड़ा के आगे और पीछे वाली दीवारों मे इस तरह की गैलरी बनी हैं जिनमे सारे रास्ते खुलते हैं. ज़ाहिर है , यदि भूल हुई तो एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाने मे ३३० फुट पैदल चलना पड़ेगा. अंदर गर्मी भी होती है और सीढ़ियाँ चढ़ने से पसीना आता है , इसलिये पानी की बोतल साथ ले जाना एक अच्छा विकल्प है.    



छत का एक दृश्य.  




छत से पीछे की ओर नज़र आ रहा है , किंग ज्योर्ज मेडिकल कॉलेज.  




चारों ओर बनी आर्चेज से शहर का सुन्दर नज़ारा दिखाई देता है.  





मुख्य भवन के बाहर बनी है एक बावली. इसके सबसे निचले तल मे पानी भरा है जो सीधा गोमती नदी से आता है. इसमे कई मंज़िलें हैं जिनमे छत की ऊँचाई को बस ५ फुट रखा गया है. गाइड ने बताया कि पुराने ज़माने मे अंग्रेज़ जो लम्बे होते थे , उन्हे झुकाने के लिये ऐसा किया गया था. लेकिन सच तो यही था कि जो भी यहाँ आयेगा , उसे सर झुकाना ही पड़ेगा वर्ना सर फूट जायेगा. सर झुकवाने का यह तरीका भी बड़ा दिलचस्प लगा. बावली की उपरी मंज़िल पर पीछे से निचले तल के पानी मे द्वार पर खड़े लोग साफ नज़र आते हैं. इसके अनेक झरोखों से गुप्त रूप से द्वार पर नज़र रखी जा सकती है.       




घूमते घूमते धूप निकल आई थी. सुहानी धूप मे रूमी दरवाजे का एक फोटो ले कर हम निकल पड़े सीधे एयरपोर्ट की ओर.   

नोट : फोटो मोबाइल कैमरे से. यहाँ के कुछ और मेघ आच्छादित फोटो यहाँ देख सकते हैं.   




Sunday, September 29, 2013

यहाँ आम आदमी भी आम से ज्यादा खास होता है ---


गत सप्ताह लखनऊ का दौरा कर, इस सप्ताह चंडीगढ़ में दो दिवसीय सी एम् ई कम वर्कशौप में शामिल होने का अवसर मिला जिसमे स्वास्थ्य सेवाओं से सम्बंधित कानूनी विषयों पर चर्चा और विचार विमर्श का कार्यक्रम था। सुबह ७ .१० की स्पाइस जेट की फ्लाईट ७ बजे ही हवा में थी और जहाँ पहुँचने का समय ८.१५ का था ,  वहीँ पौने आठ बजे ही चंडीगढ़ पहुँच गई थी। समय से पहले ही उड़ान भरने और गंतव्य स्थान पर पहुँचने को निश्चित ही समयानुकूल तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन एक सुखद अनुभव तो रहा।
दो दो की पंक्तियों में छोटी छोटी सीटों वाला यह विमान छोटा सा लेकिन बड़ा क्यूट सा था। साफ सुथरा विमान देखकर सचमुच बड़ी प्रसन्नता हुई। हालाँकि इसमें एयर हॉस्टेस की जगह सवा छै फुट की हाईट के दो ज़वान विमान परिचारिका का काम कर रहे थे। यदि उनकी ऊंचाई और एक आध इंच ज्यादा होती तो शायद विमान की छत से टकरा जाते। पौन घंटे की फ्लाईट में खाने की भी कोई विशेष आवश्यकता न होने से समय यूँ ही पेटी बंद करने और खोलने में कब निकल गया , पता ही नहीं चला।

वापसी में कालका शताब्दी से आने का कार्यक्रम था। प्रथम श्रेणी की टिकेट न मिलने के कारण चेयर कार से ही काम चलाना पड़ा। सोचा तो यही था कि ट्रेन की सीटें विमान की इकोनोमी श्रेणी की सीटों जितनी तो होंगी ही। साइज़ तो बेशक उतना ही था लेकिन सीटों पर चढ़े कवर्स की हालत देखकर बड़ा खराब लगा। ज़ाहिर है , हमारे देश में आम और खास में सदा ही अंतर रहा है। इस श्रेणी में यूँ तो सफ़र करने वाले निश्चित ही आम आदमी ही थे लेकिन शायद हमारे देश में असली आम आदमी वे होते हैं जो द्वितीय श्रेणी या अनारक्षित डिब्बों में यात्रा करते हैं।

ट्रेन का सफ़र मनोरंजक भी हो सकता है और कष्टदायी भी। साढ़े तीन घंटे के पूरे सफ़र में एक बच्चे और एक युवक ने तमाशा बनाये रखा। दो साल की बच्ची ने अपने मां पिताजी की नाक में दम कर दिया। कभी मां की उंगली पकड़ डिब्बे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक की सैर , कभी पिता के साथ। उस पर तलवार की धार सी पैनी आवाज़ में चीं चीं करती बच्ची ने सचमुच हमें भी नानी याद दिला दी। कहने को तो बच्चे भगवान का ही रूप होते हैं और अच्छे और प्यारे भी लगते हैं , लेकिन असमय और अवांछित प्यार भी कहाँ हज्म होता है। उधर पीछे वाली सीट पर बैठा एक युवक जो बिजनेसमेन था , लगातार मोबाईल पर बात किये जा रहा था।  कुछ समय बाद वह खड़ा हो गया और द्वार के पास खड़ा होकर बात करता रहा। लगभग ढाई घंटे तक वह लगातार बात करता रहा। उसका और उसके फोन का स्टेमिना देखकर एक ओर हम हैरान भी थे , वहीँ दूसरी ओर उस पर दया सी भी आ रही थी क्योंकि फोन पर वह बिजनेस की परेशानियाँ भुगत रहा था। इस बीच बाकि यात्री तो तरह तरह के पकवानों का आनंद लेते रहे और वह बेचारा माल की सप्लाई , ट्रकों का प्रबंध और पैसे के इंतज़ाम की ही बात करता रहा। आखिर उसके फोन की बैटरी जब ख़त्म हो गई , तभी वह अपनी सीट पर बैठा। तब भी उसने मोबाइल को चार्जर पर लगाया और फिर बात करने लगा। न खाया , न पीया , बस बात ही करता रहा।

हम भी ढाई घंटे तक बच्ची के मात पिता और युवक के माथे पर पड़ी एक जैसी शिकन को देखते रहे और सोचते रहे कि जिंदगी भी कितनी कठिन हो सकती है। यह दृश्य तो ऐ सी चेयर कार का था, फिर जाने साधारण श्रेणी के डिब्बों के यात्रियों का क्या हाल होता होगा। यह सोचकर ही असहज सा महसूस होने लगता है।

              

Sunday, September 22, 2013

एक दिन अवध के नाम जहाँ लोग करते थे पहले आप , पहले आप --


आज से लगभग तीस वर्ष पहले जब पहली बार एयर इंडिया के महाराजा से हवाई यात्रा की थी तब स्वयं को एक वी आई पी जैसा महसूस किया था. यह एयरलाइन भी तब यात्रियों के साथ शाही मेहमान की तरह ही व्यवहार करती थी. सबसे पहले तो विमान में बैठते ही अत्यंत सुन्दर परियों सी एयर होस्टेस के दर्शन होते थे. फिर वो अपने सुन्दर हाथों से टॉफी परोसती थीं. हमें याद है जब पहली बार हमने हवाई यात्रा की और एयर होस्टेस जब एक ट्रे में इयर प्लग और टॉफियाँ लेकर आई तब हमने तो डरते डरते एक ही टॉफी उठाई, लेकिन साथ वाली सीट पर बैठे एक महानुभव ने जब मुट्ठी भरकर टॉफियाँ उठाई तब एयर हॉस्टेस ने उसे अजीब सी निगाहों से देखा था. उसके बाद आरंभिक औपचारिकताओं के बाद जब प्लेन उड़ान भर चुका और बेल्ट खोलने का संकेत हुआ तो फ़ौरन एयर हॉस्टेस प्लेट में कुछ लेकर हाज़िर थी. हमने सुना था कि एयर इंडिया वाले उड़ान के दौरान बहुत खातिरदारी करते हैं. लेकिन जब प्लेट में अनेक क्रीम रोल्स रखे नज़र आये तो यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि खाने की शुरुआत क्रीम रोल से ! लेकिन जब हाथ में आया तब समझ में आया कि वे सफ़ेद रंग के रोल्स खाने के क्रीम रोल्स नहीं बल्कि मूंह पोंछने के लिए गर्म गीले तौलिये थे. खैर , हाथ मूंह पोंछकर हम खाने के लिए तैयार थे और खाना भी खूब खिलाया गया. 

लेकिन अभी जब एक बार फिर एयर इंडिया से यात्रा करने का अवसर मिला तो लगा कि वक्त कितना बदल गया है. एयर हॉस्टेस तो अब भी थीं लेकिन आकर्षक सिर्फ साड़ियाँ ही थीं. खाने पीने के नाम पर बस एक दो सौ एम् एल की जूस की बोतल और दो बिस्कुट। दो सौ एम् एल की पानी की बोतल भी बस मांगने पर ही. वापसी में तो बिस्कुट की जगह २ ५ ग्राम भुनी हुई मूंगफली जिसे खाकर सभी ऐसे आनंदित हो रहे थे जैसे रेगिस्तान में बिसलेरी मिल गई हो. लगता है अब वो दिन भी दूर नहीं जब अगली बार भुने हुए चने खाकर ही संतोष करना पड़ेगा।                 
 


अगली सीट की बैक पर लगे मोनिटर में यह सन्देश उड़ान के पूरे समय आता रहा. लेकिन गंतव्य शहर आ गया पर कार्यक्रम आरम्भ नहीं हुआ. आखिर आते जाते दोनों समय द्वार पर हाथ जोड़े खड़ी एयर हॉस्टेस की मधुर मुस्कान से ही महाराजा होने का क्षणिक अहसास हुआ.

बेड टी घर पर , नाश्ता और लंच लखनऊ में , फिर डिनर वापस घर आकर. अक्सर ऐसा कार्यक्रम कॉर्पोरेट जगत में देखा जाता है. लेकिन कुछ ऐसा ही हुआ हमारे साथ , जीवन में पहली बार. गुजरे ज़माने में नवाबों की नगरी लखनऊ के बारे में सुना था कि यह कोई विशेष शहर नहीं। हालाँकि लखनवी तहज़ीब के बारे में बहुत सुना था. लेकिन पता चला कि सुश्री मायावती जी ने इस शहर की कायापलट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।       


गोमती नदी के किनारे बने डॉ भीम राव अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल द्वार से होकर नदी पार कर पहुँचते हैं धोलपुर पत्थर से बने  स्थल पर.



गोमती नदी के पार एक बहुत बड़े क्षेत्र में बना है यह पत्थरों का शहर जो निश्चित ही देखने में बड़ा चक्षु प्रिय लगता है. इस भवन में बना है एक ऑडिटोरियम।



नदी के किनारे किनारे यह सड़क जिसके दोनों ओर शाम के समय बैठकर निश्चित ही रोजमर्रा की भाग दौड़ की जिंदगी से काफी राहत मिलती होगी।

इसी के दूसरी ओर कई दुकानें बनाई गई थी जो अब खाली पड़ी थी. पता चला यहाँ शाम को शानदार मेला सा लगता है. वास्तव में यह स्थान लखनऊ वासियों के लिए एक नया जीवन दान देने वाला लगता है.

बेशक इसे बनाने में सरकार या यूँ कहिये की पब्लिक फंड को भारी मात्रा में लगाया गया होगा। लेकिन अब इन्हें यूँ बेकद्री से पड़े देखकर आजकल की राजनीति पर क्षोभ ही होता है. राजनीतिक पार्टियों के  बीच फंसकर यदि कोई बेवकूफ़ बनता है तो वह आम जनता ही है. नेता लोग तो अपने व्हिम्स और फेंसी के तहत अपनी मनमर्जी करते हैं और जनता बेचारी खड़ी बस तमाशा देखती रह जाती है.


Sunday, September 15, 2013

रंग जो लाई हैं दुआएं , अब उतरने न पाए --

ब्लॉगिंग और फेसबुक की जंग में फेसबुक जीतता नज़र आ रहा है. इसका कारण है लगभग सभी ब्लॉगर्स का फेसबुक की ओर प्रस्थान करना।  हमने जान बूझकर फेसबुक पर भी अधिकांश ब्लॉगर्स को ही मित्र बनाया है. लेकिन सभी ब्लॉगर मित्र फेसबुक पर नहीं हैं , इसलिए उनके लिए प्रस्तुत हैं , फेसबुक पर प्रकाशित कुछ एकल पंक्तियाँ जो कम शब्दों में ज्यादा बात कह रही हैं :
   
* अब तो अडवाणी जी को भी समझ आ गया होगा कि भा ज पा में सिर्फ कुंवारे ही पी एम बन सकते हैं !

   यह अलग बात है कि यह फ़ॉर्मूला अब उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी भी अपना रहे हैं.  

* कभी कभी ऐसा लगता है , कि हम इस समाज में रहने योग्य ही नहीं !        
                                                                                                
  लेकिन जाएँ तो जाएँ कहाँ !                                                             
                                                                                                
* लखनऊ में : पहले आप ! पहले आप !  दिल्ली में : पहले मैं ! पहले मैं !      
                                                                                               
  जाने दिल्लीवाले इतने मिमियाते क्यों हैं !                                          
                                                                                                                                                                                              
* टी वी पर देखा तो ये ख्याल आया : क्यों न डॉक्टरी छोड़कर हम भी कृपा       दृष्टि से ही उपचार करना शुरू कर दें !                                                   
                                                                                                 
 लेकिन सोचते हैं यदि कृपा नहीं आई तो पब्लिक क्या हस्र करेगी !                
                                                                                                
* यदि ज़रूरी मीटिंग के बीच पत्नी का फोन आ जाये तो आप क्या करेंगे ?   
                                                                                                क्या करेंगे जब एक ओर कुआँ हो और दूसरी ओर खाई !                        
                                                                                              
* अक्सर दंगों में मरने वाले मासूम ही होते हैं.                                      
                                                                                              
   नामासूम ना मालूम किस जहाँ में छुप जाते हैं !                                 
                                                                                              
* आज हम अपनी दुआओं का असर देखेंगे !                                        
                                                                                              
   दुआ तो रंग ले आई. अब यही देखना है कि यह रंग कब तक टिकता है !    
                                                                                              
* कितना आसां है आसाराम बन जाना।                                              
                                                                                              
   हम तो राम बनने की आस में जीते हैं !                                            
                                                                                              
* दुनिया में दिमाग वाले तो बहुत मिल जायेंगे, लेकिन व्यापक दिमाग वाले   बहुत कम मिलते हैं.                                                                      
                                                                                               
   आखिर दिमाग की बात है , समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ेगा।          
                                                                                              
* फेसबुक ही एक ऐसा माध्यम है जहाँ अक्सर लाइक का मतलब लाइक नहीं होता !                                                                                        
                                                                                               
फेसबुक ने हर हालात में हमें खुश रहना सिखा दिया है.                            
                                                                                               
* यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं पर काबू पा ले, तो सीधा मोक्ष को प्राप्त करता है।                                                                                           
                                                                                              
यह अलग बात है कि मोक्ष धाम में करने को कोई काम नहीं होता।             
                                                                                              
* बापू की ज़वानी का राज़ क्या है --- हम भी आश्चर्यचकित हैं !                 

आश्चर्यचकित तो इस बात से भी हैं कि अब बापुओं पर भी ज़वानी रहती है.  


और अंत में एक सवाल जिस पर आपने पूरा शब्द कोष ही सामने ला कर रख दिया --सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल को हिंदी में क्या कहेंगे ! इस पर चर्चा अगली पोस्ट में.    



नोट : ब्लॉगिंग और फेसबुक में जंग अभी जारी है.देखते हैं आगे क्या होता है !